चम्बल और दिल्ली के तोमर वंश क्या एक ही है?

जानिये तोमरों का मूल स्थान तंवरधार (ऐसाह) और तंवरघार (ऐसाह) और दिल्ली के तोमरों का सम्बन्ध - pind daan procedure at pehowa

तोमरों का मूल स्थान तंवरधार (ऐसाह) -- 

ग्वालियर के तोमर राजाओं  का मूल स्थान तंवरंघार अर्थात ऐसाह था। गोपाचल (ग्वालियर) के उत्तर में वर्तमान मध्यप्रदेश राज्य के मुरैना जिले की कुछ तहसीलों के कुछ भागों को  तोआर घार (तोमर गृह) कहा जाता है। मोटे रूप में यह कहा जा सकता हैं कि "भदावर के पूर्व में चम्बल (चर्मण्वती) नदी के दक्षिणी किनारे-किनारे श्योपुर तक इसकी पंश्चिमी और उत्तरी सीमा मानी जाती हैं।”

तोमर आजकल अम्बाह और मुरैना तेहसीलों में सिमटे दिखाई देते हैं, जहां उनके अनेक ऐसे गांव है, जिनमें उनके: पुरोहित सनाढ्य ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य किसी जाति  के लोग नाममात्र के लिए हैं। कभी यह तंबरघार दक्षिण में सिन्धु, पारा और लवणा के किनारे बसे हुए पवाया और नरवर तक फैला था। तंवरधार को ऐसाह कहा जाता था। 'ऐसाह' वर्तमान अम्बाह तहसील के पश्चिम की ओर चम्बल नदी से लगभग एक मील दक्षिण में बसा है। ऐसाह के पास ही गढ़ी है और चम्बल का घाट है। खडगराय ने गोपाचल आख्यान में इन स्थानों  का उल्लेख किया है जबकि फजल अली ने कुलियाते ग्वालियरी में ऐसाह  को अशुद्ध लिखा है जिसको वर्तमान में 'ईसा मणि मोला' भी कहा जाता  है।' ऐसाह को कभी 'ईसा मणिमोला' या द ऐसाह मणि कहा जाता था। ऐसाह या ईसा का मूल ईश, शिव में है। ऐसाह निश्चित ही बहुत प्राचीन स्थल है।

खड्गराय ने गोपाचल आख्यान में ऐसाह का उल्लेख करते हुए लिखा है --

महासूर सूरन कौ नाह, चामिल बार रहे ऐसाह।'

तंवरघार (ऐसाह क्षेत्र) के बार में इतना अवश्य कहा जा सकता हें कि उत्तर और पूर्व में चम्बल (चर्मण्वती) से घिरा क्षेत्र और पूर्व. में बेतवा से घिरा क्षेत्र ही तोमर क्षेत्र कहा जा सकता है। चम्बल नदी ने पूर्व और उत्तर

 में तंवरघार के लिए सुदृढ़ गढ़ का काम किया है। यद्यपि इस क्षेत्र की भूमि समतल है तथापि मीलों तक चम्बल, कवांरी, आसन, तथा सांक नदियों में इतने बड़े और गहरे 'भरके या खाइया ' बना दिए हैं कि उनमें एक बड़ी सेना समा जाए और बाहर से दिखाई न दें।

तंवरघार (ऐसाह) और दिल्ली के तोमरों का सम्बन्ध -

आगे बढ़ने से पूर्व इस बात पर विचार कर लेना भी तर्कसंगत होगा तंवरघार और दिल्ली के तोमरो मे कोई आपसी सम्बन्ध हैं अथवा दोनों अलग अलग शाखाये या लोग है।

श्री हरिहर निवास दिवेदी का कहना हैं कि  हरियाणा क्षेत्र में स्थापित  तंवरधार और दिल्‍ली अलग - अलग .शाखाएं हैं।

 चम्बल के तोमरों ने सन्‌ 736 ई0 में अपना राज्य हरियाणा क्षेत्र में स्थापित किया था। वे सन्‌ 1192 ईo तक ढिल्लिका को राजधानी बनाकर राज्य करते रहै। इस प्रकार दिवेदी जी ने तोमरों का प्रारम्भिक क्षेत्र चम्बल ही बताया। इस बात को स्थापित करने का प्रयास किया गया हैं कि गुर्जर प्रतिहार राजा नागभट्ट प्रथम (730-756 ई0) के समय चम्बल क्षेत्र का एक तोमर  सामनन्‍्त प्रतिहारों की तरफ से किसी कार्य के लिए नियुक्त किया गया। वह थानेश्वर गया और वहां की तत्कालीन परिस्थितियों का लाभ उठाकर एक स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। मगर उसके क़टुम्ब या परिवार  के लोग चम्बल क्षेत्र में ही रह गए।
 श्री सत्यकेतु विद्यालंकार ने भी इस बात को बताने का प्रयास किया कि प्राचीन काल में इन्द्रप्रसथ्थ के समीप तोमरों ने ढिल्लिका नामक एक  नगरी की स्थापना की थी।  प्रारम्भ में हरियाना और दिल्ली क्षेत्र को तोमर राजा कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों के अधीन थे। इस सम्बन्ध में एक  अभिलेख भी मिलता है।

पेहवा हरियाणा में कुरुक्षेत्र में थानेश्वर से 14 मील पश्चिम में कैथल रोड़ पर स्थित है। यह स्थान पृथूदक नाम से प्राचीन काल मे बहुत बड़ा तीर्थ स्थल रहा है। आज उसका नाम पहोवा (पेहवा) है।

यह स्थान पृथूदक नाम से प्राचीन काल मे बहुत बड़ा तीर्थ स्थल रहा है। यहाँ बड़े बड़े सम्राट ,राजा ,सामन्त ,श्रेष्ठि , और जनसाधारण तीर्थ यात्रा के लिए जाते रहे है। महाभारत में कहा गया है -

" पुण्यामाहु कुरुक्षेत्र , कुरुक्षेत्रात्सरस्वती ।
सरस्वत्माश्च तीर्थानि , तीर्थोभ्यश्च पृथुदकम ।।

कुरुक्षेत्र पवित्र माना गया है और सरस्वती कुरुक्षेत्र से भी पवित्र है। सरस्वती तीर्थ अत्यंत पवित्र है किंतु पृथूदक इन सबसे पवित्र है। महाभारत के अलावा वामनपुराण , स्कंद पुराण ,मार्कण्डेय पुराण आदि अनेक धार्मिक ग्रंथों में इस तीर्थ की महत्ता को अत्यधिक बताया गया है।

गुर्जर प्रतिहार राजा महेन्द्रपाल (885-908 ई0) के समय यहां तीन तोमर बन्धु गोग्ग, पूर्णराज तथा देवराज आये थे। उन्होंने यहां विष्णु का त्रिमन्दिर बनवाया और एक शिलालेख भी बनवाया' इस शिलालेख में दी गई वंशावली इस प्रकार है -

इस शिलालेख में उल्लेख है कि तोमरवंशी जाउल पहिले किसी राजा का कार्यभार संभला फिर वह स्वतंत्र राजा बन गया। पेहवा शिलालेख एवं जन श्रुतियों के अनुसार जाउल अथवा विल्हण देव तोमर पहिले जिस राजा के यहां कार्य करता था। वह सम्भवतः नागभट्ट था।
नागभट्ट की ओर से वह किसी कार्य के लिए नियुक्त था। इस प्रयोजन के लिए उसने चम्बल के तोमरों और गुर्जरो की सेना गठित की। प्राचीन अनंगपुर का वर्तमान में नाम अड़गपुर है जो गूजरों की वस्ती है। अनुश्रुति के अनुसार यहाँ जाउल के वंशज एक राजकुमार ने गूजर कन्या से विवाह किया । और उनकी संतान भी गूजरो में मिल गई जो वर्तमान अडगपुर में बसे है। कुरुक्षेत्र उस समय किसी साम्राज्य का हिस्सा नही था , अनंग था।
जाउल ने इसी अनंग प्रदेश पर अधिकार कर लिया , और यमुना किनारे अनंगपुर में अपनी राजधानी बनाई और दिल्ली के तोमर राज्य की स्थापना की।
दिल्ली में राज्य स्थापित करने बालों में जाउल के अलावा विल्हणदेव और अनंगपाल के नाम भी विभिन्न स्रोतों से मिलते है। वह जाउल या विल्हण देव ही थे पर दिल्ली पर तोमरं राज्य की स्थापना करने बाले क विरुद अनंगपाल ही था । पृथुदक अब पेहवा हो गया है आज भी वहाँ दूर दूर से सरस्वती के दर्शन और अपने पित्तरों के पिंड दान तर्पण के लिए आते है।
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शिलालेख में वर्णन आया हैं कि तोमर वंश के 'जाउल' ने पहले किसी रांजा का कार्यभार संभाला और फिर स्वयं स्वतंत्र राजा बन गया।  आगे चलकर उसके वंश में (अनेक पीढ़ियों बाद) वज्रट हुआ। वज्रट का पुत्र जज्जुक था। जज्जुक की चंद्रा और नायिका दो पत्नियाँ थी। चंद्रा के पुत्र का नाम "गोग्ग" और वही नायिका के दो पुत्र थे - पूर्णराज और देवराज।

श्री हरिहर निवास द्विवेदी का मानना है कि जाउल तो दिल्ली का संस्थापक  राजा बन गया मगर उसके वंश की एक शाखा चम्बल में ही रह गई। चम्बल की शाखा में ही वज़ट, जज्जुक तथा गोग्ग हुए थे। इस प्रकार, यह स्पष्ट ही है कि दिल्‍ली के तोमर और चम्बल  के तोमर एक ही शाखा के थे।

ग्वालियर (चम्बल) की शाखा में गोग्ग की पीढ़ी में विदठल देव हुए,  फिर 9 अन्य सामनन्‍्त राजा हुए। यह भी माना जाता है कि चम्बल क्षेत्र के तोमर दिल्‍ली के तोमरों को सलाह से अथवा अधीनता में राज्य करते थे

दिल्ली में उनके अधिकार का समय अनिश्चित है। किंतु विक्रम की 10वीं और 11वीं शतियों में हमें साँभर के चौहानों और तोमरों के संघर्ष का उल्लेख मिलता है। तोमरेश रुद्र चौहान राजा चंदन के हाथों मारा गया। तंत्रपाल तोमर चौहान वाक्पति से पराजित हुआ। वाक्पति के पुत्र सिंहराज ने तोमरेश सलवण का वध किया। किंतु चौहान सिंहराज भी कुछ समय के बाद मारा गया। बहुत संभव है कि सिंहराज की मृत्यु में तोमरों का कुछ हाथ रहा हो। ऐसा प्रतीत होता है कि तोमर इस समय दिल्ली के स्वामी बन चुके थे। गज़नवी वंश के आरंभिक आक्रमणों के समय दिल्ली-थानेश्वर का तोमर वंश पर्याप्त समुन्नत अवस्था में था।

तोमरराज ने थानेश्वर को महमूद से बचाने का प्रयत्न भी किया, यद्यपि उसे सफलता न मिली। सन् 1038 ईo (संo 1096) महमूद के पुत्र मसूद ने हांसी पर अधिकार कर लिया। मसूद के पुत्र मजदूद ने थानेश्वर को हस्तगत किया। दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी होने लगी। ऐसा प्रतीत होता था कि मुसलमान दिल्ली राज्य की समाप्ति किए बिना चैन न लेंगे। किंतु तोमरों ने साहस से काम लिया। तोमरराज महीपाल ने केवल हांसी और थानेश्वर के दुर्ग ही हस्तगत न किए; उसकी वीर वाहिनी ने काँगड़े पर भी अपनी विजयध्वजा कुछ समय के लिये फहरा दी। लाहौर भी तँवरों के हाथों से भाग्यवशात् ही बच गया।

तोमरों की इस विजय से केवल विद्वेषाग्नि ही भड़की। तोमरों पर इधर उधर से आक्रमण होने लगे। तँवरों ने इनका यथाशक्ति उत्तर दिया। संवत् 1189 (सन् 1132) में रचित श्रीधर कवि के पार्श्वनाथचरित् से प्रतीत होता है कि उस समय तोमरों की राजधानी दिल्ली समृद्ध नगरी थी और तँवरराज अनंगपाल अपने शौर्य आदि गुणों के कारण सर्वत्र विख्यात था। द्वितीय अनंगपाल ने मेहरोली के लौह स्तंभ की दिल्ली में स्थापना की। शायद इसी राजा के समय तँवरों ने अपनी नीति बदली। बीसलदेव तृतीय न संवत् 1208 (सन् 1151 ईo) में तोमरों को हरा कर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। इसके बाद तँवर चौहानों के सामंतों के रूप में दिल्ली में राज्य करते रहे। पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद दिल्ली पर मुसलमानों का अधिकार हुआ और मोहम्मद गौरी और कुतुबुद्दीन ऐवक द्वारा दिल्ली उनके घर से निकाल दिया गया तो वे निराश होकर अपने पैतृक जगह या पुरखो के पास तंवरघार वापस आ गए और ऐसाह को अपनी राजधानी बनाया।

खडगराय चम्बल क्षेत्र के देवब्रह्म (ब्रह्मदेव) के बारे में वर्णन देते हुए लिखता है की -
आदिथान दिल्ली ही रहौ, कछु दिन वास छुटि सौ गयौ।  




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